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लड़की / उमा अर्पिता

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लड़की, जो
तितलियों के पंखों से
सुंदर-सुंदर/रंग बिरंगे
सपने देखा करती थी--
लड़की, जो
बैठे-बैठे/न जाने क्या सोचकर
यूँ ही मुस्कराती रहती थी--
लड़की, जो
बौराए आम-सी
झूमती/खिलखिलाती रहती थी--

उसके तमाम सपनों/खिलखिलाहटों को
जब, हर बार जिंदगी से
झूठे आश्वासन ही मिले, तब
उसके भीतर/धीरे-धीरे
पतझड़ उतरने लगा/उतरता गया
और वह मारने लगी/रोज-रोज
अपने भीतर सिर उठाती/औरत को…

अब लड़की/लड़की नहीं रही--
झर गए पंख, उसके भीतर के
तमाम सपनों के--
भूल गई वह मुस्कराना/झूमना
और खिलखिलाना
बस--
अब उसके भीतर
एक ही फूल नित खिलता है
पीड़ा का फूल, जो धीरे-धीरे
उसके भीतर की औरत को भी
खत्म किए दे रहा है--
अब लड़की रह जाएगी, तो केवल
चलती फिरती लाश...!