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यथार्थता / उमा अर्पिता

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न जाने कितने पल, कितने लम्हे,
अपने ऊपर आबनूसी रंग पोते,
बदलते मौसम का आवरण ओढ़े,
बीतती/ढलती उम्र लिए
थकी/भीगी/सीली रातों का,
बोझ अपने कंधों पर लिए
गुजर जाते हैं, एक आवारा पंछी की तरह
और…
इन्हीं लम्हों का, बन जाता है एक काफिला,
फिर गुजर जाता है, एक दिन, एक महीना,
साल और फिर एक और साल…

यूँ ही उमर ढलती जाती है/बढ़ती जाती है
और इन लम्हों के, शिकंजे में
कसते चले जाते हैं,
थका/टूटा जिस्म लिए
घिसटते हुए-से
अपनी उम्र का तकाजा लिए
हम सब
क्या आप
और
क्या हम...!