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रेखाएँ / उमा अर्पिता

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अपने ही हाथों में
खिंची रेखाओं के
अपनी न होने की
विडंबना को आज
मिटा डालना चाहती हूँ...!

इन रेखाओं ने
मेरे हाथ की धरती में ही
अपनी जड़ें जमाईं/
स्वयं को आकार दिया/पहचान दी ।
और मैंने -- इन रेखाओं को
अपनी हथेली में छुपा
सुरक्षा का वरदान दिया, पर
इन्हीं रेखाओं ने
पग-पग पर मुझे छला...!

रेखाएँ मेरे हाथ की
मगर, नाचती किसी अनदेखे इशारे पर हैं
और मुझे भी नचाती हैं!
इतनी बड़ी विडंबना मैं कैसे सहूँ?
आज इस विडंबना को मिटा ही डालना होगा--
इनकी जड़ें खोदकर
इन सब रेखाओं को
हथेली की सीमा रेखा से
मुक्त कर
इन्हें अपने अनुरूप
खूबसूरत/मनचाहा आकार देकर
हाथ की नरम धरती में रोप दूँ
तब मेरा हर विश्वास
इन्हें/समय के अनुरूप
एक नया अर्थ देगा, और
अपने ही हाथ में
अनजान इशारों पर
नाचती और संपूर्ण जिंदगी को
नचाती रेखाओं की
अनचाही पीड़ा नहीं भोगनी पड़ेगी...!

तब मैं-- अपना भविष्य स्वयं ही
गढ़ सकूँगी/और उसे
स्वयं ही अर्थ दे सकूँगी--
अपने अनुरूप/
अपने होने के सुख को
जीते हुए...!