युद्ध के मैदान में
उतरने के पश्चात
कर्तव्य हो जाता है-
जीत के लक्ष्य को
सामने रखकर
आखिरी साँस तक
हिम्मत से लड़ना…और
वही मैंने किया भी…
लक्ष्य प्राप्त करना
मेरा कर्तव्य अवश्य हो गया था, पर
यकीन करो दोस्त…मैंने,
जीतना फिर भी नहीं चाहा था,
क्योंकि, जीत की खुशी में
सौंपे गए अनपायनी शिला-से बंधन
न जाने कभी इनसे
मुक्त भी हो पाऊँगी या नहीं!