Last modified on 17 जुलाई 2013, at 19:34

चाहत / उमा अर्पिता

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:34, 17 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमा अर्पिता |संग्रह=कुछ सच कुछ सप...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हर वो सुबह
खुशबुओं में नहाई होती है, जब
तुम साथ होते हो…!
मुस्कराहटों के
खिले फूलों के बीच
भँवरे-सी भटकती आँखें
अपनी मौनता में भी
मुखर हो उठती हैं…!

एक चाहत है जो
कोंपलों की तरह
फूटने लगती है/भूल जाना चाहती है
झरे हुए पत्तों के दिन…
दिन, जो बहुत उदास थे/
बहुत लंबे थे--किसी गूँगे की
चुप्पी की भाँति,
दिन, जो अब
बसंत हो चले हैं
महकने लगे हैं, टेसुओं से
भिगो देने को आतुर
खुशबुओं के रंग में...!