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बातें / उमा अर्पिता

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कहीं भीतर तक
एक रिक्तता है
जो कचोटती है/सालती है
मन है, कि
सूनी यादों के जंगल में
भटकता रहता है...!

बहुत कुछ है, जो
मन कहना चाहता है
तुमसे ए दोस्त!
हर पल/हर क्षण
औपचारिकताओं में
जीते चले जाने के बाद
क्या भीतर कहीं कुछ
कहने को नहीं कसमसाता?
तुम भी जरूर कुछ-न-कुछ
कहना तो चाहते होंगे...!

बहुत/बहुत जी चाहता है, कि
तमाम औपचारिकताओं को भूल
बातें करती चली जाऊँ
बातें/सिर्फ बातें
बातें जो कभी खत्म न हों
बातें कुछ सुख की/कुछ दुख की
बातें कुछ मेरी/कुछ तेरी...!
मैं कहती रहूँ
और
तुम सुनते रहो/समझते रहो
तुम कहते रहो
और
मैं सुनती रहूँ/समझती रहूँ
चुपचाप!
बातें/छोटी-छोटी बातें
(बड़ी-बड़ी बातें नहीं,
बड़ी-बड़ी बातों से डर लगता है)
छोटी-छोटी बातें, जो
किसी स्नेह भरे स्पर्श-सी
दुलारती हैं…
और कभी शूल-सी चुभ भी जाती हैं...!

इस महानगर की जिंदगी में
कौन किसका दर्द समझता है?
रोजी-रोटी की दौड़-धूप में
घर से ऑफिस और ऑफिस से घर
के बीच गुजरती चली जाती है जिंदगी
और याद रह जाती हैं सिर्फ
वे बातें जिन्हें मन भूलना चाहता है...!

तुम्हें भी तो अकसर
याद आते हैं वो काम, जिन्हें
मजबूरन तुम पर लाद दिया गया
और तुम चाहकर भी
उन्हें निपटा नहीं पाए
फलस्वरूप
बेवजह पिला दी गई
डाँट की कड़वाहट
नहीं पचा पाए तुम!
निकम्मे बॉस की
ऊँची होती आवाज पर
जी तो चाहा था तुम्हारा
उसका मुँह नोच लेने का, पर
कुछ सोचकर चुपचाप उठ आए थे तुम
और सुहाने मौसम के बावजूद
लगने लगा था, जैसे
खुनक बढ़ गई हो हवा में...!

फिर धीरे-धीरे उतरने लगा
आँखों में स्याह रंग
याद आ गई बच्ची की दवाई
जो तुम ला नहीं पाए थे
और वो
सो नहीं पाई थी पिछली रात,
याद आया बेटे का गुस्से से फूला मुँह
उसे नई जींस दिलाने का वादा
जो पैसों की कमी के चलते
पूरा न हो सका था
और बीवी का भुनभुनाता चेहरा
जो तुम्हारी तमाम व्यस्तताओं के बीच
एक फिल्म देखने की जिद पर अड़ी है...!

सच, यह सब मेरे साथ भी तो होता है
जानते हो, कभी-कभी यह उदासी
इतनी हावी होती है कि अनचाहे ही
फाइलों में उभर आता है
पति का फरमाइशों से भरा चेहरा,
तो कभी बच्चों की मनुहारें,
किसी की कमीज का टूटा बटन
या जूते का पुराना हो गया फीता...!

बच्चों की मैली ड्रेस से लेकर
कमरों के रंगहीन पर्दे और
आने वाले मेहमानों की
चिकचिक से लेकर
गई रात पति से हुई खटपट…
सभी कुछ तो याद आता है/
हर क्षण याद आता है
कुछ भी तो नहीं भूलता, ए दोस्त!
क्या जिंदगी वाकई ऑफिस से घर
और घर से ऑफिस के बीच ही
सिमटकर रह गई है?
हम दो, जो केवल सहयोगी हैं
ऑफिस की बदतमीजियों के
भुक्तभोगी हैं,
यहाँ का दर्द हम ही जानते हैं!

अलग-अलग अपने-अपने
दायरों में जीने वाले हम
अपने-अपने
जीवन के सहयात्री से
एक साथ जीने-मरने का वादा
तो करते हैं, पर
एक-दूसरे को समझकर भी
नासमझ ही रहते हैं!
ऐसे में अकसर सालता है
किसी से बात करने का अभाव-
शायद संबंधों पर
हावी होते हैं रिश्ते
रिश्ते, जो टूटन की कगार पर
खड़े हुए भी
अटूट होते हैं!

दैहिक निकटता
मन का
संताप नहीं हरती
प्यासा मन/अकुला उठता है
छोटी-सी/प्यार भरी/स्वार्थ से परे
किसी बात को-
बात जो गुदगुदा दे/सहला दे
बात जो/हर ले संताप मन का
बात जो स्फूर्ति की तरह
मन में करवट ले उठे
बात जो आँखें झुकाकर/सब कुछ देख ले
बात जो मुस्कराकर/सब कुछ कह दे
बात जो शरमाकर/सब कुछ सुन ले
बात जो न तेरी हो
बात जो न मेरी हो
बात जो सिर्फ अपनी हो
क्या ऐसी बात
कहने का/सुनने का
कोई क्षण कभी मिलेगा?