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अब किसे बनवास दोगे / अध्याय 3 / भाग 4 / शैलेश ज़ैदी

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मैं सोचता हूँ कि सर्वशक्तिमान सृष्टा ने
कितने जतन के बाद दी है
आदमी को यह काया
और इस काया में फूंककर अपने प्राण
इसे बनाया है अपने जैसा
ताकि वह जो देवता हैं,
व्यक्त कर सकें इसके प्रति आस्था
मैं सोचता हूँ कि यह आदमी
क्यों गुमा देता है अपनी वह पूर्णता
जो मिली है इसे सृष्टा से
आदमी होने के नाते?
क्यों बना लेता है खुद को
कभी देवता और कभी राक्षस?
क्यों नहीं कुरेदता इसे भीतर तक
आदमी होने का गौरव?
जबकि इसे पता है कि यही आदमी
जब कर लेता है पूर्णता को प्राप्त,
यानी अपनी साँसों को गिनने के बजाय,
बहने लगता है नदी की तरह शान्त
और धरती को ऊँचा बहुत ऊँचा उठाकर
उतर जाता है गहरा बहुत गहरा अन्तरिक्ष में
तो पर्वतों के शिखर झुक जाते हैं इसके समक्ष,
समुद्र बना देता है इसके लिए रास्ता
और मच जाती है देवलोक में हलचल
मैं देखता हूँ कि राम के राज्याभिषेक की सूचना
बन गई है देवताओं की आँखों की किरकिरी
देवता करने लगे हैं भीतर तक महसूस
कि ठण्डा पड़ जाएगा सट्टे का बाजार
कि धरती छीन लेगी आकाश से
उसकी सारी शक्ति
मैं अनुभव करता हूँ कि देवताओं के शोर से
टूट पड़ा है आसमान
कि सरस्वती ने भर दी है मन्थरा के वक्ष में कूटनीति
कि ढल गये हैं दशरथ और कौशल्या की मूर्च्छा में
धरोहर स्वरूप धरे हुए वरदान
मैं अनुभव करता हूँ कि उतर आये हैं देवता
कैकेयी की आँखों मैं,
और थिरक रहे हैं उसकी जीभ के ऊपर
और महल के कोने में बैठी मन्थरा
होठों को सिकोड़ कर
बजा रही है सीटी
मैं देखता हूँ अनुभवों की खुलती पर्तों में
एक के बाद-एक बदलते दृष्य
और दृष्यों का यह बदलाव
उकेरता है दृष्यों के वर्तमान की सच्चाई