काले समन्दर में अचानक एक लाल स्तम्भ उगता है ।
लहर-लहर मारती है गैंती--टूटकर फैलता है लाल रंग
एक ग़ुस्सैल इशारे की तरह
तमतमाता हुआ सूरज
उठता है : गिरता है
काला समन्दर फिर
अपना वही अट्टहास-- शुरू करता है
लौटते हैं हम चुपचाप ।
शुरू होती है कविता फिर
एक चीख़ की मानिन्द ।