Last modified on 29 अगस्त 2013, at 17:38

ढ़हते दरख्त / रति सक्सेना

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:38, 29 अगस्त 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दरख्तों को ढहना पसन्द नहीं
वे उठते हैं ऊँचे फैलाव के साथ
वे फैलते हैं पूरे फैलाव में
वे पाँव पसारते हैं पूरी जमीन में
भरपूर ज़मीन, भरपूर आसमान
भरपूर आसपास, पूरी तरह भरपूर
जब कभी ज़मीन करवट लेती है
आसमान आखिरी बूंद तक पिघल जाता है
आसपास बैगाना बन जाता है
दरख्तों को ढहना पड़ता है
ढहने से पहले वे
पखेरुओं को आशीष देते हैं
लताओँ से विदा कहते हैं
पत्तियों को झड़ जाने देतें हैं
जडों में बिल बनाए साँपों का सिर
हौले से सहला देते हैं
मौन धमाके से
वर्तमान को थर्राते हुए
मुट्ठी भर माटी हाथ में लिए
ढह जाते हैं भविष्य में