Last modified on 29 अगस्त 2013, at 18:14

पछुआ के निश्वास / रति सक्सेना

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:14, 29 अगस्त 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब भी पछुआ चला करती
माँ की गुनगुनाहट बरस
झप्प-झप्प बुझने लगती
मरुस्थली रेत पर,
कम हो जाती उमस
बन्द कमरे की
आज भी जब आसमान
तप कर चूने लगता है
मेरे कानों में लहराने लगती हैं
माँ के गीत की लहरियाँ
सागर के हाथ उठ जाते हैं ऊपर
बरसने लगते हैं गीत झनाझन
मेरे होंठों से
माँ के निश्वास बन।