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कविता से / आन्ना अख़्मातवा

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कविता-बहन ने देखा मेरे चेहरे की तरफ,
स्‍पष्‍ट और निर्मल थी उसकी दृष्टि
साने की अँगूठी छीनी उसने मुझसे
छीना बहार का प्रथम उपहार।

ओ कविता, कितनी प्रसन्‍न हैं सभी
कन्‍याएँ, स्त्रियाँ और विधवाएँ...
अच्‍छा होगा मर जाना पहियों के नीचे
हथकड़ियाँ पहने घूमने के बजाय।

जानती हूँ, अनुमान लगाते मुझे भी
तोड़ना होगा गुलबाहर का नाजुक फूल,
अनुभव होना चाहिए हरेक को इस धरती पर
कैसी यातना होता है प्रेम और कैसा शूल ?

सुबह तक मैं जलाए रखूँगी कंदील
रात भी याद नहीं करूँगी किसी को,
मैं नहीं चाहती जानना, हरगिज नहीं
किसी तरह वह चूमता हैं किसी दूसरी को।

कल मुझे हँसते हुए कहेगा दर्पण
'न स्‍पष्‍ट है न निर्मल तुम्‍हारी दृष्टि'
धीरे-से मैं दूँगी उत्‍तर उसे -
'छीन ले गई है वह मुझसे मेरा दिव्‍य उपहार।'