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उस रोज / प्रताप सहगल

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टूट गईं थीं उस रोज़ असहज स्थितियों की सभी शिलाएं
जिस रोज़ दो जोड़ी अधर आपस में टकराए थे
तभी रेखागणित ने अपना चेहरा छुपा लिया था
क्योंकि दो समानंतर रेखाएं
मिलकर एक हो गई थीं.
मेरी हथेलियों पर जो कैक्टस उग आए थे
वो मुरझा कर टूट गए
और छुई-मुई उग आया मेरी आँखों में
जिसे मैंने अपनी बाहों में भर लिया
तभी उस कमरे का सारा आकाश घूम गया था
और तुम्हारी शिराओं के स्वर बदल गए थे
उन स्वरों को पहचानने के उपक्रम में
मैंने आकाश को अपनी मुट्ठी में भर लिया.
वह मुट्ठी भर आकाश
आज भी पड़ा है मेरी जेबों में
उसे इन्तज़ार है सिर्फ़ किसी संकेत का
संकेतों के संधि-स्थल पर
खुलता है सारा आकाश
टूटते हैं कैक्टस
खिलते हैं गुलाब
प्रश्नचिह्न कट जाते हैं
और हट जाते हैं सभी विराम
रह जाते हैं सिर्फ संकेतों के विधान
और संकेतों के संधि-स्थल पर रह जाती हैं
सिर्फ दो समानान्तर रेखाएं
होती हुई एकाकार.