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रामकली / प्रताप सहगल

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बहुत सालों के बाद
आज इस चेहरे को देखा है
दिमाग पर काफी दबाव देने के बाद याद आया
इसका नाम रामकली है.
रामकली उन दिनों
लहलहाता खेत थी
एक भरा-पूरा गुलदस्ता
और ज़िन्दगी को जीने की
एक अद्दम्य लालसा थी उसकी आँखों में.
खनखनाती हँसी बिखेरती
महफिलों की रौनक रामकली
आज बाज़ार में सूखी ईख बनी खड़ी है
चेहरे की गुलाबीपन झड़ गया है और
सुरमई दैत्य फैल गया है पूरे बदन पर
दांतों पर जमी मोटी मैल की परत
रामकली की रामकहानी कर रही है.
उसके बालों की चमक न जाने कहाँ दुबक गई है
और गालों के गहरे गड्ढे
आंखों के नीचे काली झाइयां
लगता यूं है
जैसे रामकली अपनी तीस साल की
ज़िन्दगी में ही
कई जीवन जी चुकी है.
और अब वो केवल
अपने छः बच्चों के वास्ते
राशन पानी बटोरने के लिए ही
घिसट रही है.
आपने भी कहीं न कहीं ज़रूर देखा होगा/
रामकली को बाजार/दुकान/घर
या अपने ही घर में.
दूर से ही आसान से उसकी पहचान.
उसका दुर्भाग्य यह है
कि न वो अब पहली ज़िन्दगी में लौट सकती है
और न ही अपने बच्चों को
दे सकती है
सभ्य दुनिया का परिवेश.