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पै‘लापै‘ल (2) / सत्यप्रकाश जोशी

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आज अणचितारयां
अणबुलाई, अणचींती सी
अलेखूं बार
दौड़-दौड़ आंऊ थारै दुवार
तो ई नीं अछेही आस पूरै
नीं सवाई साध पूरै
रे म्हारा कांन्ह कांमणगार !

पण पै‘लापैल
अचपला कांन्ह कंवर !
थूं म्हारौ अबोट पुणचौ पकड़
सुरंगी जमना रै कांठै
उण कदंब रूंख रै पसवाड़ै
म्हारै नैणां में टुग-टुग जोवण लागौ ;
थारै कोडीलै हाथ रौ
निवायौ परस
म्हारै रूं-रूं में
झणकारां रा झाला मारण लागौ,
रगत नाड़ियां में
जांणै पाळौ जमग्यौ ;
आखै पंथ, आखै मारग,
पगां में भाखर रौ भार लियां
घणी दोरी चाली ।