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बदनांमी / सत्यप्रकाश जोशी

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छांने क्यूं मिळूं
म्हारा कांन्ह छांनै क्यूं मिळूं ?

थारी मुरली
म्हारा ई तो नांव नै
धरती आभै में सरसावै
बरस जुगां री छेली माठ लग पुगावै
कुण नीं मानै ?
कुण नीं जाणै ?
तौ छांनै क्यूं मिळूं
म्हारा कांन्ह छांनै क्यूं मिळूं ?

नगरी-नगरी, हाट-हाट, गळी-गळी
लोग म्हनैं जांणै,
थारी म्हारी सूरत पिछांणै।
एक जीव रा ए दो इदका रूप
कुण राधा, कुण गोपाळ !

औ जमना रौ नीर अथाग
थारा नै म्हारा भैळा भाग।

रूंखां रा सगळा पांन थनै जांणै,
म्हनै हर फूल हर कळी पिछांणै,
तौ छांनै क्यूं मिळूं
म्हारा कांन्ह छांनै क्यूं मिळूं ?

वो आभौ धरती नै चूमै,
वे जमना री लै‘रां सागर सूं लूमै,
वो पूंन कदंब रा कांनां में
प्रीत रा मीठा बोल सूणावै,
वो पुहप सौरभ रै समचै
आपरा आलीजा भंवरां नै
घणै मांन सूं बुलावै,
वे भंवरा फूलां रै कांनां में
आपरी प्रीत रा गीत गुणगुणावै
ऐ सगळा थारै म्हारै ईज हेत रा रूप अनेक,
थारी म्हारी प्रीत री रीत रा भाव अनेक,
थारी प्रीत म्हनै अमर करै।
थारी प्रीत म्हनै पूरण करै।

तौ छांनै क्यूं मिळूं
म्हारा कांन्ह छांनै क्यूं मिळूं?