Last modified on 23 अक्टूबर 2013, at 16:00

पूरा चाँद / शशि सहगल

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:00, 23 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशि सहगल |अनुवादक= |संग्रह=मौन से स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पैदा होते समय
बंद होती है बच्चे की मुट्ठियाँ
पर वे खाली नहीं होतीं
छिपा रहता है उनमें भविष्य
वक्त की दीवार के पार।
भविष्य
जो होता है अदृश्य।

धीरे-धीरे
दीवार का कद छोटा होता जाता है
और एक दिन बच्चा
खोल देता है मुट्ठी
ऐसे ही एक दिन
अनजाने, अनचीन्हें तुम
आ गये मेरे जीवन में
और मेरे खाली हाथों में
थमा दिया, पूरा चाँद
चाँद की ठंडक
बचाती रही सदा मुझे
सूरज की गर्मी से
बाहर से झेलती रही ताप
पर मेरा अन्तर
महफूज़ रहा चाँद के साथ
वर्षों बाद अचानक चाँद
टूट कर बंट गया छोटे बड़े टुकड़ों में
अब अब उसका हर हिस्सा
मांगता है
पूरा चाँद।