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खण्डहर सीरिज़ / शशि सहगल

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खण्डहर - एक

काँपते हाथों से कलेजा थामे
एकटक देखता है ऊपर
बाट जोह रहा हो जैसे
मृत्यु की।


खण्डहर - दो

ऊँचे हौदों वाले हाथी
करते थे प्रवेश जिस द्वार से
आज वही दरवाज़ा
ज़मीन से उखड़ते अपने पाँवों को
जमाना चाहता है मज़बूती से
दोनों हाथों से
छत को थामे।


खण्डहर - तीन

भीतर से खण्डहर हुआ आदमी
आँख के किस कोर से
तुम्हारी कला की सम्पूर्णता का
आकलन करे
समझ नहीं आता।


खण्डहर - चार

कोई भी सुन्दर इमारत
नहीं जगाती
मन में आह्लाद
पता नहीं क्यों
छू जाता है मुझे
खण्डहरों का सन्नाटा।


खण्डहर- पाँच

भीतर से टूटे फूटे जीवन को
संवारने में
पता नहीं लगेगा कितना वक्त
किस मुँह से तारीफ करूँ
खण्डहरों की पेटिंग्स की
पर तुम्हारी ज़िद है
कि मैं दो शब्द कहूँ
कहना चाहती हूँ
पर कैसे कह पाऊँगी कि
खण्डहर
तुम्हारी तूलिका में जीवन्त हो उठा है
ऐसा बोल कर मैं
पूरी तरह चूर-चूर हो जाऊँगी।


खण्डहर – छह

सिर उठा कर
कतरा-कतरा खत्म होने में
मज़ा कुछ और ही है।


खण्डहर - सात

खुले आसमान के नीचे
सिर उठाये
खड़ा है खण्डहर
ज़र्रा-ज़र्रा होने की इंतज़ार में


खण्डहर - आठ

खण्डहरों की पेंटिंग
जैसे
वक्त के चेहरे पर पड़ा
तेज़ाब


खण्डहर - नौ

अपनी बेचारगी को छिपाने में
बिता दी मैंने सारी उम्र
यह तुमने मुझे
नुमाइश में क्यों ला खड़ा किया?


खण्डहर - दस

मैंने तुम्हें
अपनी तस्वीर बनाने को कहा था
यह तुमने क्या किया!
किस हक से तुम
मेरे भीतर तक झाँक गये।