तुम क्यों नहीं समझते
कविता लिखना मेरे बस की बात नहीं
दिमाग की गर्मी में पलते, पनपते
विचारों को
जामा पहनाना होता है, शब्दों का
शब्द, जो ब्रह्म हैं
अनादि, अजन्मा हैं
शब्द सत्य है
कहते हुए कुछ अटपटा लगेगा
मैंने कई बार
विकसित शब्दों को
बढ़ने से रोका है
भ्रूण हत्या भी की है मैंने उनकी
अगर वे ब्रह्म थे और अजन्मा
तो क्यों नहीं बने रहे वैसे ही
मौसम की तरह
बदलते रहे रंग हर बार
तरह-तरह की पोशाकें पहन
छलते रहे मुझे।
मैंने जैसा सोचा
लिखना चाहा
फिसल कर दूर जा गिरे मेरे हाथों से शब्द
उन मूल शब्दों के अभाव में
अब कैसे लिखूँ कविता
क्यों हो जाता है, हर बार वैसा
जो नहीं चाहते हम?