साँझ ढ़ल रही है
धीरे धीरे धीरे।
पीले गेंद-सा सूरज
वृक्षों के पीछे गिर गया है
ईंट मजदूरों की बस्ती में
झोपड़ी से उठ रहा है धुआँ
पक रहे हैं सपने
अधनंगा बच्चा
मुर्गियों के पीछे/भगता है
श्वेदकणों से लथ-पथ युवक
दालान में फैली
लकड़ियों को समेट रहा है
समेट रहा है इच्छायें
ढ़ीली चारपाई पर
बैठे हुए बूढ़े पिता के
झुर्रीदार चेहरे पर
चिपकी हुई
निस्तेज आँखें
मटमैले आसमान में
सपनों को ढूँढ रही हैं।