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अपरिहार्य / नीरजा हेमेन्द्र

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शहर-दर- शहर
भटकता इन्सान
कर ही लेता है
दो जून की रोटी का जुगाड़
कर लेता है एक छत का इन्तज़ाम
सड़क-दर सड़क
शहर-दर-शहर
भागते-भागते/ वह छुप जाता है
उस छत के नीचे
खा कर दो निवाले रोटी के
दूसरे दिन वह अपनी
संवेदनायें/या कि
मानवीय भावनायें
उस छत के नीचे छुपा कर
निकल पड़ता है
सड़क-दर सड़क
वह नही देखना चाहता
पुल के नाचे बैठी
जर्जर, कंकाल शरीर
धूसर, मिट्टी जैसी/निस्तेज
नेत्रों वाली वृ़द्धा को
वह नही देखना चाहता
सड़क के किनारे पड़े
मृत, लावारिस मानव शरीर को
भीड़ से निर्मित शहर में
अस्तित्वहीन
उसका शहर-दर-शहर
     सड़क-दर-सड़क
     भटकना/ अपरिहार्य है।