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मरघट / शिशुपाल सिंह 'निर्धन'

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किसलिए बता वन-उपवन मे तू घूम रहा मारा-मारा
सब गीत धरे रह जायेंगे टूटेगा जिस दिन इकतारा
हर घाट-घाट पनघट-पनघट घूमा फिर भी घट खाली है
यह प्यास नहीं केवल तेरे दुर्बल मन की कंगाली है
तेरा तीरथ तो घट मे है बाहर छलकी अंधियारी है
यह राग सांस की सरगम का घर जाने की तय्यारी है
जब तक प्रतिबिम्ब लगे मैला,दर्पण को रख अपने आगे
पूजा का दीपक बनकर जल जब तक न मौन प्रतिमा त्यागे
है तेरे पीछे लगा हुआ कबसे मरघट का अंगारा

किसलिए...

हंस-हंसकर जीवन जीने से आंसू का ऋण चुक जाएगा
तप की ज्वाला से दूर न जा प्रभु से अंतर बढ जायेगा
जीवन की गीता एक दिवस अक्षर-अक्षर हो जाएगी
तेरे यश-गौरव की गाथा धीरे-धीरे सो जाएगी
माटी मे खोएगी माटी,सूरज भी क़र्ज़ चुकाएगा
जल अपना कण-कण छीनेगा,ले प्राण पवन उड़ जायेगा
तेरी काया का ताजमहल हो जायेगा पारा-पारा

किसलिए...

हाथों से दान किया कितना आँखों से क्या-क्या काम लिया
कानों से क्या-क्या सुना बता,वाणी से क्या गुणगान किया
यह चरण ले गए कहाँ तुझे तेरे आचरण बताएँगे
यदि सदुपयोग किया होगा तो यह फिर भी मिल जायेंगे
जिसकी चादर उजली होगी वोह उसको गले लगाएगा
मैली चादर बाला उस दिन बस दूर खडा घबराएगा
उसके आगे सब नीर-क्षीर छट जायेगा न्यारा-न्यारा
क्यूँ घूम रहा मारा-मारा सब गीत धरे रह जायेंगे
टूटेगा जिस दिन एकतारा

किसलिए...

सुधियों के सागर की लहरें घायल सी तट पर डोलेंगी
स्मृतियाँ बनकर नेह-नीर हर घट मैं करुणा घोलेंगी
पथ मैं तृष्णा के दलदल में क्यूँ बचकर निकल न पाता है
तू सज़ा रहा जितना मठ को उतना मरघट मुस्काता है
बाहर चन्दन सा महक रहा यह जग अंदर से खारा है
आगमन-गमन की चक्की मे,पिसते हर पंथी हारा है
क्यूँ भटक रहा है त्रण जैसा तू थका-थका हारा-हारा

किसलिए...

खिलकर झर जाएगा गुलाब,पागल सुगंध हो जायेगी
तू बना रहा जिसका माली सारी बगिया मुरझायेगी
मन की दासी इन्द्रियाँ सभी संयमी बनी सो जाएँगी
आड़ी-तिरछी सब रेखाएं उस दिन सीधी हो जायेंगी
कितना खोया,कितना पाया,कितना रोया कितना गाया
तू लगा रहा अपनी धुन मे जीवन भर समझ नहीं पाया
अंतिम क्षण तेरे नैनों मे होगा आंसू खारा-खारा

किसलिए...

रह जायेंगे सब मीत खड़े सब चित्र टंगे रह जायेंगे
चिंतन की चादर मे लिपटे सब छनद पड़े रह जायेंगे
धूमिल हो जायेंगी छवियाँ, केवल चर्चा रह जायेंगी
अधरों पर धरी कोई बंसी फिर तेरा गीत न गाएगी
ये प्रश्न कौन है क्या है तू?जब-जब अंतर मे अटकेगा
खटकेगा जब तक यह काँटा तू युगों-युगों तक भटकेगा
घायल हिरनी सा मरुथल पर तू थका-थका हारा-हारा

किसलिए...