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बरसों पहले / कुमार रवींद्र

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बरसों पहले
यहीं कहीं तो
रहता था सुखराम घाट पर
 
बचपन का था दोस्त हमारा
सभी उसे कहते थे सुखिया
सुनो, उन दिनों
उसका बाबा
सभी केवटों का था मुखिया
 
सबसे बड़ी
नाव थी उनकी
सुनो, उसी में था उनका घर
 
सुखिया की थी बड़ी बहन भी
जिसको हम दीदी कहते थे
हमको लगती थी वह अच्छी
उसकी धौंस रोज़ सहते थे
 
गुस्सा हुई
नहीं बोलेगी
इसका ही था हम सबको डर
 
लगती है उनकी ही यह तो
रेती पर जो नाव पड़ी है
उधर नये पुल पर, देखो तो
कार-ट्रकों की भीड़ बड़ी है
 
शहर गाँव तक
आ पहुँचा है
सूखे कुएँ, नदी औ' पोखर