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सुनो...हमसे / कुमार रवींद्र

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सुनो..हमसे
धूप का संवाद
अब होता नहीं
 
रोज़ दिखते वही बच्चे
सुबह कूड़ा बीनते
शाह भी हैं वही
मुँह से कौर सबके छीनते
 
सुना...होरी
इन दिनों भी
रात भर सोता नहीं
 
राख बरसी दोपहर-भर
कहीं बस्ती है जली
देवता की आँख भी तो
हो गई है साँवली
 
नाम रटता था
प्रभू का
वह दिखा तोता नहीं
 
पाँव के नीचे हमारे
चुभ रहीं हैं सीपियाँ
हमें अंधा कर गईं
जलसाघरों की बत्तियाँ
 
गया कुचला
रथ-तले
वह शाह का पोता नहीं