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खोजो भाई / कुमार रवींद्र

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खोजो भाई
यहीं मिलेंगी
तुमको कविता की आकृतियाँ
 
छोड़ गये थे
यहीं कहीं हम
किसी शोख बच्चे को हँसते
दिखा सगुनपाखी था हमको
यहीं किसी कोटर में बसते
 
पर्व-हुए
ढाई आखर की
यहीं मिली थी हमको तिथियाँ
 
इसी घाट पर
हमने पहला-पहला ही
रोमांस किया था
बैठ नाव में लहरों-लहरों
रितु का यहीं दुलार किया था
 
यहीं नहातीं
हमें दिखी थीं
दादी के किस्से की परियाँ
 
छुवन फूल की
और न जाने
कितने ही मोहक प्रसंग थे
घर- आँगन में ही उत्सव थे
तब सांसों के यही ढंग थे
 
सुनो, मिलेंगी
तुम्हें गूँजतीं
यहीं कहीं मीठी कनबतियाँ