जल रही थी चिता
धू-धू करती
बिना संदल की लकड़ी
बिना घी के....
हवा में राख उड़ रही थी
कुछ अधजले टुकड़े भी....
आस पास मेरे सिवा कोई न था...
वो जगह श्मशान भी नहीं थी शायद...
हां वातावरण बोझिल था
और धूआँ दमघोटू.
मौत तो आखिर मौत है
फिर चाहे वो रिश्ते की क्यूँ न हो....
लौट रही हूँ,
प्रेम की अंतिम यात्रा से...
तुम्हारे सारे खत जला कर.....
बाकी है बस
एहसासों और यादों का पिंडदान.
दिल को थोड़ा आराम है अब
हां,आँख जाने क्यूँ नम हो आयी है
उसे रिवाजों की परवाह होगी शायद...