अकाल पड़ता है गाँव में
और शहर में बढ़ जाते हैं
घर-गाँव के प्रति मेरे दायित्व
आँधियाँ उखाड़ती हैं मुझे
पैरों के नीचे से खिसकती है धरती
न मैं गाँव का रह पाता हूँ
और न शहर का
मेरे आस-पास खाली कनस्तरों की तरह
बजती हैं हवाएँ।
अकाल पड़ता है गाँव में
और शहर में बढ़ जाते हैं
घर-गाँव के प्रति मेरे दायित्व
आँधियाँ उखाड़ती हैं मुझे
पैरों के नीचे से खिसकती है धरती
न मैं गाँव का रह पाता हूँ
और न शहर का
मेरे आस-पास खाली कनस्तरों की तरह
बजती हैं हवाएँ।