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संघर्ष / उमा अर्पिता

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तुम जब जिंदगी के
बियाबान सूनेपन में
हँसते/मुस्कराते हो
(मात्र क्षण-भर के लिए ही सही)
तब--
न जाने किस अनजान
रहस्यमय अतीत के
गर्भ से जन्मे
लाखों नक्षत्रों और सितारों से
रस बरसने लगता है, और
मेरे मन की धरती
भाव-विभोर हो उठती है।
तुम्हारी विद्युताणुओं से ज्यादा
चंचल नजरें
अन्तरिक्ष के सन्नाटों में भी
बेताब दौड़ती/खोजती-सी रहती हैं,
तुम्हारी आँखें कितनी रहस्यमयी हैं!
कितनी रहस्यमयी है तुम्हारी मुस्कराहट!!
और तुम्हारे इरादे...?
दार्शनिक रहस्यों से भी ज्यादा गहरे!
आखिर क्या कुछ सोचते रहते हो तुम?
ऐसे में तुम्हारा व्यक्तित्व
बड़ा रहस्यमय हो उठता है!
जानते हो--
तब मैं कितना घबरा जाती हूँ, जब
तुम टेढ़े-मेढ़े/असुविधाजनक/अप्रत्याशित
प्रश्नों की झड़ी लगा देते हो!
प्रश्नों के झुरमुट में खो जाना
और रहस्योद्घाटन के लिए
कल्पनाशील मस्तिष्क को
एक सिरे से दूसरे सिरे तक घुमाना--
हर वक्त यह कहाँ तक उचित है?
और फिर तुम भी तो
इस सब से कभी
संतुष्ट नहीं हो पाये!
इन्हीं संघर्षों और परेशानियों के
घेरे में चक्कर काटते
जब तुम मुस्कराते हो,
तब कितना अच्छा लगता है।
क्योंकि--
यही मुस्कराहट जीवन की सार्थकता है।