क्यों न आज मिलकर
पुराने संवादों/परिसंवादों के बोझ को
अपने कंधों से उतार फेंके?
जर्जर कंधों पर
यह बोझ उठाना
अब असहनीय हो गया है!
क्या हम हमेशा
ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर ही
दौड़ते रहेंगे...?
नहीं जानती थी, कि तुम
आकाश के विस्तार पर
अपनी उड़ान का इतिहास
लिखने के पागलपन को
अपने में समेटे हो,
यह जानते हुए भी, कि
आकाश धरती नहीं, जो
हर निशान को सीने पे अंकित कर ले!
स्वयं को छलते हुए/हम
क्षितिजों की तरह मिलते रहे हैं,
आकाश और धरती की
दूरी को जानते/समझते हुए।