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दायरा / उमा अर्पिता

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प्रतिदिन--
एक नया/खूबसूरत सपना
तुम मेरी आँखों में
भर देते हो, और मैं
अपनी छोटी-छोटी बाँहें फैलाकर
आकाश का विस्तार
अपने भीतर समेट लेने को
अकुला उठती हूँ,
नाप लेना चाहती हूँ
समस्त धरती
अपने छोटे-छोटे पाँवों से
ऐसे में--
तुम्हारे प्यार की धरती में
कुछ और गहरे तक
पैठ जाती हैं, मेरे विश्वास की जड़ें
और--
पनपने लगती है
संबंधों की मोहक बेल--
(संबंध--जिन्हें तुम कोई भी नाम दे सकते हो)

मेरी सूनी हथेलियों पर
खिल उठता है
सुहाग का बसंत और
घूमने लगती है जिंदगी
एक दायरे में, जिसका
केंद्र-बिंदु तुम/केवल तुम होते हो,
हर बार
सोच का हर एक पहलू
तुम से शुरू होकर
तुम पर ही खत्म हो जाता है।