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राग / शर्मिष्ठा पाण्डेय

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सुनो केशव !!
ग्रीष्म की एक उमसती दोपहरी में...
गर्दन के नीचे टपकते पसीने की सर्पीली रेखा...
महसूस करती हूँ हृदय के पास... हलकी भीग सी जाती है...
मन-किवाड़ों की नक्काशियों में उकेरी तुम्हारी तस्वीर...
हौले से पोंछती हूँ तुम्हारे मस्तक पर छलक आई मेरे पसीने की बूँदें...
और, झटकती हूँ ज़मीन पर... उभरती है इक झनकार वृन्दावन की वीणा में ..
और सखी हरिदास ने सुनाया जो वही तो था 'वृन्दावनी सारंग'..
दिन के तीसरे प्रहर में ..
गाते गाते फाग... गुलाल सुरबद्ध हुए ..बांसुरी संग जुगलबंदी करते सारे रंग ढल चले ..
'भीमपलासी' में... सप्त्देवियों के अखंड पात्र से निकले सप्त सुधारस से पग़े ..
रसमिसे नैवेद्य से... सातों सुर में तपाये गए 'भैरव' से ब्रह्ममुहूर्त में ..
भोग चढ़ाती हूँ तुम्हें... गर्वोन्मुखी मुस्कान हो उठती है और भी मारक ..
बढ़ता जाता है सौंदर्य ज्यूँ... रात्रि प्रथम प्रहर में गूंजता है 'केदार' ..
झनकते बिछुए के घूँघरू सतर्क करते हैं गर्भगृह में सम्पूर्ण हक़ जताते...
निद्रामग्न पुजारी को... अगली बार... कमर से नीचे के सारे आभूषण रख आउंगी...
धारण करुँगी केवल शांत, गंभीर प्रकृति वाले 'मालकोस' से टीके, झुमके ..

मध्यरात्री में चटकती बसंत की नवेली कली ..मौसम का स्पर्श पा दहक कर वक्ष से...
सरका देती है पत्तियों का हरित आवरण और स्वागत में भ्रमर 'बहार' सा गुनगुनाता है प्रणय गीत...
सम्पूर्ण देवदासी जाति रात्रि के प्रथम प्रहर में त्याग देती हैं सारे वस्त्र ..लज्जा से दुबक उठता है चिर-कौमार्य...
अपनी बारी की प्रतीक्षा में ..लेकिन आयु का मार्ग लम्बा है... उस छोर पर खड़ा है देवता सिन्दूरदानी लिए...
सम्पूर्ण जाति के 'हमीर' जैसे बाँध लेगा अटूट बंधन में...
किन्तु,वक्री चलन सी कामनाएं मध्यान्ह में जलाती हैं देविकाओं के एकाग्र चित्त को और किलसता है '7-गौड़ सारंग' ..
रचती हैं वे अपने समर्पण नन्हे नन्हें ख्यालों में ..गूंथती हैं नखरीली ठुमरी '8-तिलक कामोद' की माला में ..

जानते हो केशव ....!!
प्रत्येक दिन के अंतिम प्रहर में सायंकालीन संधिप्रकाश में निहारती हूँ यमुना जल में मुखड़ा...
तल में पत्नियों संग नृत्य करता कालिया विषैली फुंकार से काला कर देता है जल...
फूंकती हूँ विषमारक मंत्र किसी कुशल संपेरन-सी... लेकर तुम्हारा नाम... और बज उठती है 'मारवा' सी धुन यमुना जल की लहरों पर...
आश्रय ले लेता है नाग फिर से तली में... ओढ़ लेता है गंभीर प्रवित्ति...
हो जाता है ध्यानमग्न 'पूर्वी' सा ...शुद्ध हो उठती है यमुना... तरंगें छेड़ने लगती हैं राग 'दुर्गा' ..
और मुखर होने को तैयार होने लगता है 'देशकार' ...

सुनो ....!!
जिस तरह तुम समाये हो ना मेरे रोम रोम में...
पूर्वांग, उत्तरांग, मध्य-नाड़ी में करवटें लेते हो...
ठीक उसी तरह मध्यरात्री का प्रेमी 'शंकरा' चुपके से समा लेता है अपने उत्तरांग में...
दूसरे प्रहर में 'तिलंग' अलसाया-सा खोलता है आँखें और अल्हड ठिठोली करता मतवाले किशोर-सा...
चंचल 'कलिंगडा' अंतिम प्रहर में किलस कर चूम लेता है जाती हुई नवयुवती रात्रि के होंठ...
मधुर छुवन से भारी होता आभास लिए 'पटदीप'...'जयजयवंती' की प्रतीक्षा में...
दूसरे प्रहर के अंतिम भाग में परमेल-प्रवेशक बन नवागंतुक-सा बाट जोहता है...

केशव !!
देह तानपुरे पर गहनों जैसे
चंचल, वक्री, आश्रयी वाले ढेरों 'सोहनी'..'कामोद'.. ’मुल्तानी' और 'हिंडोल'... सरीखे राग सजा रक्खे हैं...
पूजा की थाली में कोने धरा संकीर्ण बाती वाले दीपक की लौ झूमती है 'पीलू' के देव श्रृंगार वाले चंचल वर्णन पर...
बगल में धरी रोली अक्षत गंभीर मुद्रा में साधती हैं ध्रुपद के स्वर...
सम्पूर्ण 'कल्याण' की कामना लिए 'खमाज' और 'अल्हैया बिलावल' देवालय के द्वार पर...
अरण्य से गुजरते डाकुओं द्वारा छले गए पथिक की भांति गुहार लगाते करबद्ध खड़े हैं...
सुलतान हुसैन शर्की वाला 'जौनपुरी' फरियादी के राग.. विराग करने पर आमादा रात्रि के प्रथम प्रहर में...
'बागेश्वरी' की धुन पर अभ्यर्थना में विघ्न उत्पन्न करता है... गूंजती है आज भी महल के पिछले कक्ष में मध्यरात्रि वाली दासी...
ठुमरी 'काफी' के घुँघरू पहने हुए ..'आसावरी'.. 'विहाग' के विवादी स्वर प्रथम प्रहर में 'देश' राग गाते वीर योद्धा के धनुष पर चढ़ते ही शब्दभेदी बाण से भेद जाते हैं ’भैरवी’ का ह्रदय प्रातः बेला में...

बोलने लगती है श्यामा पक्षी... स्नान कर तैयार होने लगता है सूर्य .. पूजा के बर्तन धोने लगती हैं देवदासियां ..हरी ॐ का स्वर।।
बुदबुदाने लगता है पुजारी
और मैं... धीरे-धीरे चलती आती हूँ और समाहित हो जाती हूँ तुम्हारी प्रतिमा में ...
समाप्त हो जाती है राग... सुर... प्रणय... पूजन की महफ़िल...
सुनो!! फिर आएगी न रात...
केशव!!