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छाँव / प्रेमशंकर रघुवंशी

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उगते सूरज की तरफ़
मुँह किए खड़ा
तो अस्ताचल तक लम्बी हो गई छाँव

दोपहर तक
मेरे ही पाँवों के नीचे
आ बैठी सिमटकर

अब अस्ताचल की तरफ़
मुँह किये खड़ा हूँ
तो सूर्योदय के क्षितिजों तक
लम्बी हो गई ज़िन्दगी !!