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हिलकोरने लगता / प्रेमशंकर रघुवंशी

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हरियाली का महासागर पोर-पोर
और आकाश का विस्तार समाए
एड़ी से भाल तक
तुम ही होतीं ओर-छोर

अब न तो किसी से
खिलने की विधि पूछना है
न हवा से बूँदा-बाँदी
और ना ही
किरणों से आँख-मिचौनी मुझे !