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सुनहली सीख / हरिऔध

 सैकड़ों ही कपूत-काया से।

है भली एक सपूत की छाया।

हो पड़ी चूर खोपड़ी ने ही।

अनगिनत बाल पाल क्या पाया।

जो भला है और चलता है सँभल।

है भला उस को किसी से कौन डर।

दैव की टेढ़ी अगर भौंहें न हों।

क्या करेंगे लोग टेढ़ी भौंह कर।

नेकियाँ मानते नहीं ऐबी।

क्यों उन्हीं के लिए न बिख चख लें।

वे न तब भी पलक उठायेंगे।

हम पलक पर अगर ललक रख लें।

बढ़ सकें तो सदा रहें बढ़ते।

पर बुरी राह में कभी न बढ़ें।

चढ़ सकें तो चढ़ें किसी चित पर।

हम किसी की निगाह पर न चढ़ें।

हैं बहू बेटियाँ जहाँ रहती।

है दिखाती कलंक लीक वहीं।

क्यों न हो झोंक ही जवानी की।

है कभी ताक झाँक ठीक नहीं।

क्यों टका सा जवाब उस को दें।

जिस किसी से सदा टके ऐंठें।

जो रहें ताकते हमारा मुँह।

हम उन्हीं की न ताक में बैठें।

बात ताने की, किसी के ऐब की।

कह न दें मुँह पर, बचें या चुप रहें।

बात सच है, जल मरेगा वह मगर।

लोग काना को अगर काना कहें।

काम मत आप कीजिये ऐसे।

जो कभी आप को बुरे फल दें।

हाथ में लग न जाय मल उस का।

नाक को बार बार मत मल दें।

जो सकें बोल बोलियाँ प्यारी।

तो उसे बोल डालना अच्छा।

कान में तेल डाल लेने से।

कान का खोल डालना अच्छा।

छोड़ दो छेड़ छाड़ की आदत।

मत जगा दो अदावतें सोई।

है बहुत खोदना बुरा होता।

देख ले कान खोद कर कोई।

तब तमाचा न किस तरह लगता।

आग जब बेलगामपन बोता।

हो रहे जब कि लाल पीले थे।

तब भला क्यों न लाल मुँह होता।

हैं अगर चाहते वु+फल चखना।

तो बुरी चाहतें जगा देखें।

मुँह लगाना अगर भला है तो।

क्यों लहू को न मुँह लगा देखें।

काम में ला खुला निघरघटपन।

नाम मरदानगी मिटाना है।

बेबसों को लपेट चित पट कर।

पालना पेट मुँह पिटाना है।

सुन जिसे कोई नहीं पा कल सके।

बात ऐसी क्यों निकल मुँह से पड़े।

रंगतें हित की न जब उन में रहीं।

फूल मुँह से तब झड़े तो क्या झड़े।

खुल सकेगा तो नहीं ताला कभी।

जो भली रुचि की मिली ताली नहीं।

पान की लाली न लाली रखेगी।

रह सकी मुँह की अगर लाली नहीं।

बेतरह वे न बेतुके बनते।

औ न संजीदगी तुम्हीं खोते।

यों सुलगती न लाग-आग कभी।

मुँह-लगे जो न मुँह लगे होते।

निज भरोसे सधा न क्या साधो।

और का बल-भरोस है सपना।

देखना छोड़ दूसरों का मुँह।

देखते क्यों रहें न मुँह अपना।

काम ले बार बार धीरज से।

कब न जी की कचट गई खोई।

क्यों दुखों की लपेट में आवे।

क्यों पड़े मुँह लपेट कर कोई।

रूप औ रंग के लिए ही क्यों।

जी किसी की ललच ललच डोले।

रख भलाई सँभाल भोलापन।

भूल पाये न मुँह भले भोले।

चाह जो हो कि दुख नचा न सके।

पास से सुख नहीं हिले डोले।

पाँव तो देख भाल कर डाले।

मुँह सँभाले, सँभाल कर बोले।

तब रहे किस लिए भले बनते।

जब भली बात ही नहीं सीखी।

भूल कर चाहिए नहीं कहना।

बात कड़वी, कड़ी, बुरी, तीखी।

बात कह कर कसर-भरी ऐंठी।

हो गई बार बार बरबादी।

बेसधा काम साधा देती है।

बात सीधी, सधी हुई, सादी।

रस न उन का अगर रहे उन में।

तो बनें बोलियाँ सभी सीठी।

है लुभाती भला नहीं किस को।

बात प्यारी, लुभावनी, मीठी।

है बड़ा ही कमाल कर देती।

है सुरुचि-भाल के लिए रोली।

नींव सारी भलाइयों की है।

बात सच्ची, जँची, भली, भोली।

गोद में उस की बड़े ही लाड़ से।

है बहुत सी रंग बिरंगी रुचि पली।

डाल देती है निराले, ढंग में।

बात भड़कीली, ढँगीली, रसढली।

धान रतन धुन उन्हें नहीं रहती।

हैं नहीं मोहते उन्हें मेवे।

मानियों का यही मनाना है।

मान कर बात, मान रख लेवे।

हो न भारी सके कभी हलके।

हैं न छिपती खुली हुई बातें।

तोलने के लिए भला किस को।

तुल गये कह तली हुई बातें।

है बड़ी बेहूदगी जो काम की।

बात सुनने के लिए बहरे बने।

तो किसी गाँव की न गहराई रही।

जो न गहरी बात कह गहरे बने।

छेद जिसमें अनेक हैं उसमें।

सोच लो पौन का ठिकाना क्या।

कढ़ गई कढ़ गई चली न चली।

साँस का है भला ठिकाना क्या।

याद प्रभु को करें जियें जब तक।

लोक-हित की न बुझ सकें प्यासें।

हम गँवा दें इन्हें नहीं यों ही।

हैं बड़ी ही अमोल ए साँसें।

जी सका सब दिनों हवा पी जो।

उस बिचारे के पास ही क्या है।

किस तरह से सुचित हो कोई।

साँस की आस आस ही क्या है।

जो भले भाव भूल में डालें।

तो उन्हें प्यार साथ पोसा क्या।

जो भला कर सको तुरत कर लो।

साँस का है भला भरोसा क्या।

है वही फूला सुखी जो कर सका।

वह न फूला दुख दिया जिस ने सहा।

फूल जैसा फूल जो पाता नहीं।

दम किसी का फूलता तो क्या रहा।

मान की चाह है हमें तो हम।

और का मान कर न कम देवें।

काम साधों कमीनपन न करें।

दाम लेवें मगर न दम देवें।

धाँधाली में हवा हवस की पड़।

क्यों मचाता अनेक ऊधाम है।

जो रहा राम में न रमता तो।

दाम दम का छदाम से कम है।

जो मरम जानते दया का हम।

तो उजड़ता न एक भी खोंता।

क्यों न होता दुलार दुनिया में।

प्यार का पाठ कंठ जो होता।

मोतियों से पिरो न क्यों देवें।

कब समझदार हो सके संठे।

लंठ के लंठ ही रहेंगे वे।

लंठ लें कंठ में पहन कंठे।

जब किसी का पाँव हैं हम चूमते।

हाथ बाँधो सामने जब हैं खड़े।

लाख या दो लाख या दस लाख के।

क्या रहे तब कंठ में कंठे पड़े।

क्या हुआ प्यारे-पालने में।

जो नहीं है कमाल भेजे में।

वे रखे जाँय कालिजों में भी।

जो गये हैं रखे कलेजे में।

मन मरे दूर हो अमन जिससे।

सुख पिसे, चूर चूर हो, नेकी।

है बनाती कड़ा नहीं किस को।

वह कड़ाई कड़े कलेजे की।

तब भला किस तरह भलाई हो।

भर गई भूल जब कि भेजे में।

तब सके गाँठ हम कहाँ मतलब।

पड़ गई गाँठ जब कलेजे में।

बन पराया मिले परायापन।

कब तपाया हमें नहीं तप ने।

और के हाथ में न दिल दे दें।

दिल सदा हाथ में रखें अपने।

बात उलझी बहँक बहँक न कहें।

बात सुलझी सँभल सँभल बोलें।

पड़ न पावे गिरह किसी दिल में।

लें गिरह बाँधा दिल गिरह खोलें।

बेबसी है बरस रही जिस पर।

तीर उस पर न तान कर निकले।

यह कसर है बहुत बड़ी दिल की।

सर हुए पर, न दिल कसर निकले।

बीज बो कर बुरे बुरे फल के।

कब भले फल फले फलाने से।

दुख मिले क्योें न और को दुख दे।

दिल जले क्यों न दिल जलाने से।

छोड़ दे छल, कपट, छिछोरापन।

देख कर छबि न जाय बन छैला।

और के माल पर न हो मायल।

दिल किसी मैल से न हो मैला।

वह भरा है भयावनेपन से।

है हलाहल भरा हुआ प्याला।

साँप काला पला उसी में है।

काल से है कराल दिल काला।

मान औरों की न मनमानी करे।

क्यों रहे अभिमान कर हठ ठानता।

है इसी में मान, रहता मान का।

ले मना, जो मन नहीं है मानता।

और का बार बार दिल दहला।

भूल कर मन न जाय बहलाया।

तो उमंगें न आन की वु+चलें।

मन अगर है उमंग पर आया।

बीज मीठे जाँय क्यों बोये नहीं।

है अगर यह चाह मीठे फल चखें।

पत रखें, जो पत रखाना हो हमें।

चूक है मन रख न जो हम मन रखें।

सूझ कर सूझता नहीं जिन को।

वे उन्हें दूर की सुझाते हैं।

काम है सूझ बूझ का करते।

पेट की आग जो बुझाते हैं।

है बड़ा वह जो पराया हित करे।

हित हितू का कौन करता है नहीं।

है भला वह, पेट जो पर का भरे।

कौन अपना पेट भरता है नहीं।