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प्रत्येक दिन / जयप्रकाश कर्दम

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जिन्दगी का प्रत्येक दिन
दमन और हिंसा के एक मुकम्मल दौर सा
बीत जाता है ऐसे
जैसे बदल जाती है
दफ्तर में टंगे कलेंडर की तारीख
बदलते रहते हैं बदलती तारीखों के साथ
लाशों के ढेर में दलित
बच्चे, बूढे, जवान
बलात्कृत होती रहती हैं स्त्रियां
बदलते जायेंगे यदि इसी तरह
कलेंडर के पन्ने
हर नयी तारीख के साथ
होते जाएंगे दमन के शिकार दलित
कल को खड़ी हो सकती हैं लाशें
मनुष्य बनने की जद्दोजहद के साथ
चलने लग सकती हैं रोबोट की तरह।