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चबूतरा / जयप्रकाश कर्दम

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आज से नहीं
मेरे जन्म के समय से है
हमारे घर के बाहर चबूतरा
यह चबूतरा था हमारा
लगभग आधा घर
यहीं पर मेरे दादा, चाचा और मैं
हम सब बैठते, लेटते,
सोते और खाते थे
चबूतरे पर लगे नल पर ही
हम लोग नहाते थे
मेहमान आ जाता कोई घर पर
तो उसकी चारपाई भी
इसी चबूतरे पर लगती थी
इसी चबूतरे पर नीम के नीचे
डाब के बानों से बुनी
टूटी सी चारपाई पर बैठकर या लेटकर
पढता रहता था मैं
गोबिंदा के किशोरी ने,
जो नहीं समझता था आदमी को आदमी
अपनी ताकत और अमीरी के घमण्ड में
गुजरता था छाती फुलाकर
हमारे सामने से
करता था अपमानजनक टिप्पणियां
मजाक उड़ाते हुए हमारी गरीबी का
कसा था एक दिन मुझ पर
तिरस्कारपूर्ण ढंग से यह फिकरा
तेरा बाप बहुत पढा है जो तू पढेगा
मैंने कहा था सिर्फ इतना
मेरा बाप नहीं पढा पर मैं पढूंगा

तुम देख लेना
पढता रहता था मैं रात-दिन
भूख-प्यास की परवाह किए बिना
चाह थी कुछ करने की
उससे भी बड़ी थी कसमसाहट
किशोरी से मिली चुनौती का जवाब देने की
इसी चबूतरे पर खड़े होकर
मेरी मां ने बांटे लड्डू
जब-जब मैंने डिग्रियां प्राप्त कीं
मेरी नौकरी लगी या
हासिल कीं मैंने दूसरी उपलब्धियां
एक दिन इसी चबूतरे पर
मेरे पास आकर बैठा था किशोरी
लेने को मुझसे सलाह
अपने बेटे की पढाई के बारे में।