Last modified on 20 मार्च 2014, at 20:26

नीम / जयप्रकाश कर्दम

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:26, 20 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयप्रकाश कर्दम |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बचपन से साथ-साथ बड़े हुए हैं
मैं और
हमारे घर के आंगन में खड़ा
नीम का पेड़
पाला था मैंने
बरसात के मौसम में
टूटे कच्चे घर के मलबे में उग आए
इस नीम को
सुबह को सोकर उठता
सबसे पहले जाकर अपने नीम को देखता
स्कूल से लौटकर आता तो बस्ता फेंककर
सीधा नीम के पास जाता
उसके पास बैठता
उसे छूता, सहलाता
उसके आसपास उग आए घास के पौधों को
उखाड़कर फेंकता
थोड़ा बड़ा हुआ नीम तो रोप दिया उसे
पिताजी ने आंगन के बीचों बीच
पहले मैं उससे बड़ा था
फिर वह मुझसे बड़ा हो गया
और कुछ ही सालों में
पूरा दरख्त बन गया
इसी नीम के नीचे
टी.बी. से ग्रसित अपनी पसलियों को लिए
बैठे रहते थे मेरे पिता
वहीं से उठी थी उनकी अर्थी
विलाप करती रह गयी थी मां
फोड़ी थी उसने अपने हाथों की चूड़ियां
परिवार के हर दु:ख-दर्द और संघर्ष का

भागीदार रहा है यह नीम
परिवार के एक जिम्मेदार सदस्य जैसा
दूसरे सदस्यों से ज्यादा चौकन्ना और वफादार
चोर घुस आए थे घर में एक रात
जब सो रहे थे सब गहरी नींद में
अपने पत्ते फड़फड़ाकर
नीम ने ही मचाया था शोर
भाग गए थे चोर उल्टे पांव
मजदूरी करने जाती थी मां
छोटे-छोटे सारे बहन भाइयों को
लेकर बैठा रहता था अपनी छांव में
बहनों ने झूलना चाहा सावन में
अपनी बाहें फैला दीं उसने
झूला डालने को
किसी को दातुन की जरूरत पड़ी
या कोई अन्य आवश्यकता
बेहिचक, बिना किसी प्रतिकार के
दे दीं नीम ने अपनी टहनियां
आर्थिक तंगी के दौर में
ईंधन नहीं था जब घर में
चूल्हा जलाने को
अपना पूरा एक तना
दे दिया था उसने खुशी-खुशी
उसके शरीर का वह हिस्सा
आज भी ठूंठ है
बहनें विदा होकर गयीं जब घर से
कम उदास नहीं हुआ था नीम
हवा के हर झोखे के साथ
देखता था वह बार-बार उधर ही
गयी थीं वे जिधर से रोती हुई
सब को छोड़कर
गर्मी की रातों में सोना चाहते थे
जब छोटे भाई घर की छत पर
बहुत प्यार से अपनी पीठ पर बैठाकर
पहुंचा देता था उनको वहां तक नीम
बहुत खुश होता है नीम
जब बच्चे उसके पास आकर खेलते हैं
उससे लिपटते हैं, छूते हैं
उसके चारों ओर घूमते हैं
चलना सीख रही थी जब मेरी बेटी
अपने डगमग पांवों से
संभाला था उसे कितनी ही बार गिरने से
अपना सहारा देकर नीम ने
वह सोती तो नीम पंखा झलता
उसे मीठी नींद सुलाता
यह काम वह अब भी करता है
छोटे भाइयों के बच्चों को झुलाता है
खिलाता है, मीठी नींद सुलाता है
लेकिन, एक-एक कर परिवार के लोगों के
घर छोड़कर चले जाने के से
कुछ अकेला और उदास रहता है अब नीम
एक और दु:ख है उसको जिसे
वह किसी को नहीं बताता है
रास नहीं आता अब किसी को उसका बढना
जब भी उसकी टहनियां तनिक बड़ी होती हैं
झांग दी जाती हैं
बना दिया जाता है उसे ठूंठ
जब भी मैं गांव जाता हूं
नीम के हिलते फड़फड़ाते पत्ते
मुझे अपने पास बुलाते हैं
अपना दर्द सुनाते हैं
पिछली बार गया था मैं गांव
अपने कटे हाथ और
ठूंठ जैसे शरीर को दिखाते हुए
बयान की थी उसने अपनी व्यथा
पूछा था मुझसे यह सवाल
क्या कमी रह गयी मेरी वफादारी में
जो मेरे साथ ऐसा सलूक होता है
निरूत्तर रह गया था मैं
नीम के इस सवाल पर
आज कटा पड़ा है नीम
घर के एक कोने में
काठ का ढेर बनकर
काठ बना गया है मुझे
नीम का काठ होना।