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कनबहरे / केदारनाथ अग्रवाल

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कोई नहीं सुनता
झरी पत्तियों की झिरझिरी
न पत्तियों के पिता पेड़
न पेड़ों के मूलाधार पहाड़
न आग का दौड़ता प्रकाश
न समय का उड़ता शाश्वत विहंग
न सिंधु का अतल जल-ज्वार
सब हैं -
    सब एक दूसरे से अधिक
                कनबहरे,
                अपने आप में बंद, ठहरे।