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देवता अब भी / अज्ञेय

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1.
जलहरी को घेरे बैठे हैं
     पर जलहरी में पानी सूख गया है।
     देवता भी धीरे-धीरे सूख रहे हैं
     उन का पानी मर गया है।

     यूप-यष्टियाँ रेती में दबती जा रही हैं
     रेत की चादर-ढँकी अर्थी में बँधे
     महाकाल की छाती पर
     काल चढ़ बैठा है।

     मर रहे हैं नगर नगरों में
     मरु-थर मरु-थरों में
     जलहरी में पानी सूख गया है।

2.

     तीन आँखों से देखता है वह सारा विश्व
     एक से सिरजता, एक से पालता, एक से करता संहार।
     तीन आँखों से देखता है वह सारी सृष्टि का व्यापार
     एक में काम, एक में करुणा, एक में आग का पारावार।

     तीन आँखों से देखता है वह विश्व
     और जिधर देखता है उधर हो जाता है गर्म राख का ढेर
     ठंडी रेत का विस्तार।
     लोक का क्षय होता है

     उसमें और वह बढ़ता है
     उस का क्षय होता है
     उसमें और वह बढ़ता है
     अवतरता है

     खो जाता है उस मरु में
     उस की लीला सृष्टि है
     जो वह है। कैसे करें हम
     कि वह उतरे उतर कर वही हो जो कि वह है?

     अगर हम नहीं हो पाते वह
     कि जो हमें होना होता है?
     मरु में उस ने रचा है-हम को
     क्या हम उस में रचेंगे-एक मरु?

     तीन आँखों से देखता है वह-
     हम को कि मरु को
     हम वह हैं कि मरु हैं?
     तीन आँखों से देखता है वह...
     पशुपतिनाथ, काठमांडौ

3.

     बालू के घरौंदे बनाये हैं तीन बालकों ने
     उन्हें नहीं पता कि इसी बालुका में वे कण हैं
     जिन के विकिरण से आरम्भ होती है प्रक्रिया
     संसार के सभी घरौंदों के विनाश की।

     बालुका से खेलते हुए तीन बालक
     सागर का स्वर (जल के कि रेत के?)
     मानव ही मानव की तीसरी आँख है
     तुम्हारी आँखें क्यों बन्द हैं, देवता?
     बौद्धनाथ, काठमांडौ