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परिवर्तन / तारा सिंह

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नियति की प्रेरणा की सीमा में
बंद, बंधन विहीन यह दुनिया
प्रकृति के परिवर्तन के क्रम में
हर पल अपना रूप बदलती है

कभी शरद के ओस से धुल, अपने
अंगों पर वषंत के मृदु फ़ूलों को
लपेटकर, दुल्हन सी सजती है
कभी दुख की लपटों में लिपटी
ग्रीष्म के अंगारों पर चलती है

परिवर्तन के इस क्रम में,सूरज
चाँद-तारे, जमीं-आसमां सभी आते हैं
इससे अछूता कोई नहीं है, तभी
मरु में उदधि, उदधि में जलनिधि
कभी, जलनिधि में ज्वाला जलती है

मगर घृणा ,द्वेष, लिप्सा,स्पर्धा से पीड़ित
अपनी ही छाया से भयभीत, मनुज
परिवर्तन के इस क्रम में खुद को
इतना बदल लिया है, आज अपनी ही
आवश्यकता का अनुचर बनकर रह गया है

कहता प्रकृति ने, धरा पर तप्त स्वर्ण सा
दमकता, जड़ पर्वत और सागर जो गढ़ा है
वह केवल मनुज दृष्टि को भ्रमित करता
कामना वह्नि से दहक रहे मनुज के
वक्षस्थल को अपनी सौंदर्य का ज्वार
उठाकर यह कब शांत कर सका है

जब कि बड़े भाग्य से, मनुज जनम पाया है
उसे सजाने, सँवारने ,हमें मधु गंध रस-
भरित, चन्द्रक्रीड़ित रजनी चाहिये
कब सावन का प्यासा, ओस चाटकर
अपने जीवन की प्यास बुझा सका है

ऐसा, लगता मनुष्यत्व निर्भर करता था, जिन
दया, धर्म और श्रद्धा के ज्योति स्तम्भों पर
वह आत्म–नग्न मनुज की लिप्सा की
आँधी में टूट्कर कण-कण में बिखर चुका है

तभी अन्तर्दृष्टि विहीन मनुज कहता
अति विनीत होने का अर्थ यह नहीं होता
कि सघन लतादल में रहकर भी हमारी
जीवन की अभिलाषा प्यासी रहे
शीतल जल स्रोत की धार फ़ूटती कहाँ से
कभी किसी से न पूछे, बल्कि
जीवन भर के कठिन प्रयत्न से जो शांति
संग्रह किया है, वहीं कुटीर बनाकर
प्रभु के चरणों में, निर्भय होकर जीये