मैं लगभग ईर्ष्या के साथ पढ़ता हूं अपने समकालीनों की कविताएं:
तलाक़, अलगाव, तकलीफ़देह जुदाइयां;
व्यथा, नई शुरुआतें, छोटी-मोटी मृत्यु भी;
चिट्ठियां जो पढ़ी गईं और फिर जला दी गईं, जलना, पढऩा, आग, संस्कृति,
क्रोध और निराशाएं-- कविता के पुंसत्व के लिए बेहद ज़रूरी माल;
निर्मम फ़ैसले, क़द्दावर सदाचारियों के ठहाकों की नक़ल उड़ाते
और अंत में सबकुछ को समा लेने वाले चिरस्थायी आत्म की विजय.
और हमारे लिए? कोई मर्सिया नहीं, हमारे विरह पर कोई छंद नहीं,
हमारे बीच कविता का कोई पर्दा नहीं
सटीक उपमाएं भी हमें एक-दूसरे से अलग नहीं कर पातीं
नींद ही है वह एकमात्र जुदाई जिससे हम बच नहीं पाते
नींद की गहरी गुफा, जिसमें हम अलग-अलग उतरते हैं
--और मैं पूरी तरह ध्यान रखता हूं इस बात का कि
जो हाथ मैंने पकड़ रखा है उस समय
वह पूरी तरह सपनों से बना होता है.