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बिखरते रिश्ते / सुलोचना वर्मा

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नही बुनती जाल इस शहर में अब मकड़ियाँ
लगे हुए हैं जाले साज़िश के हर दीवार पर

बिखर गये हैं रिश्ते, अपनो की ही साज़िशो से
बस यादें टॅंगी रह गयी हैं घरों की किवाड़ पर

टुकड़े हुए रिश्तों के, ज़मीन के बँटवारे में
एक ही उपनाम है इस शहर के हर मीनार पर

क्यूँ बेच रहे हो आईने इस नुक्कर पर तुम
ये अंधो का शहर है, और धूल हर दीदार पर