दो थे भाई दो नगरों में अपना समय बिताते।
वेतन भोगी बन कर दोनों रह कमाते खाते॥
दोनों के परिवारों का था पालन-पोषण जारी।
बूढ़े माता और पिता को घेरे थी बीमारी॥
बेटे-बहुएँ मिलकर चारों ज़िक्र जुबां पर लाये।
रोगी हैं माँ-बाप, किस तरह ख़र्च चलाया जाये॥
बहुत देर तक रहे सोचते मिलकर दोनों भाई।
आखि़र इस बारे में उनको बात समझ में आई॥
माँ को रख ले बड़ा, पिता छोटे के हिस्से आया।
थे बुजुर्ग माँ-बाप उन्हें यह निर्णय तुरत सुनाया॥
सुन कर मात-पिता के मन की तुरत धीरता डोली।
रोती-रोती कंपित स्वर में माँ बेटों से बोली॥
प्यारे बच्चो! बूढ़े हम रोगी हिम्मत के हारे।
एक-दूसरे से ऐसे में करो न हमको न्यारे॥
छोटे सुत की बहू लगी फिर बुढ़िया को समझाने।
और ख़र्च बेहद की, घर छोटों की बात बनाने॥
माँ तुम भी कुछ सोचो-समझो वाजिब उनका कहना।
ऐसी हालत में मुश्क़िल है मिल दोनों का रहना॥
हम ही केवल नहीं और भी है परिवार हमारा।
थोड़ी मिलती जगह, ख़र्च का होता नहीं गुज़ारा॥
इधर पिता को, उधर बड़ों से माँ को मिले सहारा।
इसी व्यवस्था से हो पायेगा व्यय का बँटवारा॥
हमको भी आराम रहेगा, अलग-अलग रहने से।
हम दोनों भी बच पायेंगे ख़र्च अधिक सहने से॥
बीती सारी राता समय जब प्रात काल का आया।
छोटी पुत्र वधू ने जाकर छू कर उन्हें जगाया॥
स्तब्ध रह गई देख मरों को जीवित बचा न कोई।
जोड़ी थी जो वृद्ध रह गई वह सोई की सोई॥
सुना फेसला था दोनों ने चला न कोई चारा।
अपने बेटों बहुओं से दोनों कर गए किनारा॥