Last modified on 17 जून 2014, at 02:45

पास न आते भँवरे जिन फूलों के पास पराग नहीं / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:45, 17 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महावीर प्रसाद 'मधुप' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पास न आते भँवरे जिन फूलों के पास पराग नहीं
मिलन व्यर्थ है छलक सके जो आँखों से अनुराग नहीं

स्वाति बूंद के लिए पपीहा पागल हो, पी-पी रटता
बरसें मेघ निरन्तर, बुझती किन्तु विरह की आग नहीं

कथनी-करनी में समानता मिल न सकी दुनिया भर में
मिला न कोई दामन ऐसा जिसमें कोई दाग़ नहीं

सन्त नहीं बन जाता कोई कपड़े सिर्फ़ रँगाने से
विषयों में आसक्त रहे मन वह तो कोई त्याग नहीं

गम की काली रात देख कर मन मेरे भयभीत न हो
कभी न आए पतझर जिसमें ऐसा कोई बाग नहीं

मीरा जैसा कण्ठ चाहिए गीत प्रीत के गाने को
हर मन की वीणा पर होता मुखर प्रेम राग नहीं

नित्य नई मनती दीवाली नभचुम्बी प्रासादों में
झोंपड़ियों में जल पाए हैं, सुख के अभी चिराग़ नहीं

‘मधुप’ इस क़दर फैल गया है विष मानव के तन-मन में
हुआ विषैला इतना जितना होता काला नाग नहीं