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रणभेरी / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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संकट में है देश, घिरी फिर सिर पर घटा अँधेरी है।
सिंह सपूतों गरज पड़ो फिर बज उट्ठी रणभेरी है।।

अब न चलेगा काम शांति के गीत मधुरतम गाने से,
और नयन में पंचशील के मीठे स्वप्न सजाने से,
अपना स्वर्ग लुटा जाता, माता की लाज बचाओं रे!
इम्तिहान का वक़्त आ गय, अब जौहर दिखलाओ रे!
कायर तुम्हें समझ कर फिर दुश्मन ने आँख तरेरी है!
सिंह सपूतों गरज पड़ो फिर बज उट्ठी रणभेरी है।।

दरवाजे़ पर कोलाहल है, घर में चैन-अमल कैसा?
शत्रु खड़ा संगीन लिए फिर उत्सव और जशन कैसा?
छोड़ो बात अहिंसा की, अब खङ्ग खींच लो म्यानों से!
मनमानी पर तुले हुए उन जूझ पड़ो शैतानों से।
आतताइयों के ऊधम की हद हो चुकी घनेरी है।
सिंह सपूतों गरज पड़ो फिर बज उट्ठी रणभेरी है।।

कम्पित करते चलो धरा-आकाश विजय के नारों से!
आँख लगाए नन्दन-वन पर, कह दो उन हत्यारों से!
चाक कभी होन भारतमाता का चीर नहीं देंगे।
प्राण लुटा देंगे लेकिन, हर्गिज़ कश्मीर नहीं देंगे।
बुला रही है धरती अपनी वीरो! अब क्या देरी है?
सिंह सपूतों गरज पड़ो फिर बज उट्ठी रणभेरी है।।

उस माँ के तुम लौह-लाडले, वीर प्रसू जो कहलाती!
सुन कर सिंह दहाड़ तुम्हारी फट जाती अरि की छाती!
किसमें हिम्मत है जो जलते अंगारों को टोक सके?
किसमें ताक़त है जो बढ़ते भूचालों को रोक सके?
जग-ज़ाहिर है शौर्य तुम्हारा, चचिर्त ख़ूब दिलेरी है।
सिंह सपूतों गरज पड़ो फिर बज उट्ठी रणभेरी है।।

अब केशर की जगह रक्त हो सरिता कूल कछारों में।
अपना गौरव हँसे शत्रु के शोणित भरे पनारों में।
करो न गफ़लत, शीघ्र बचा लो स्वर्ण-प्रदेश तबाही से।
नई लिखों फिर ‘राजतरंगिणि’ आज रक्त की स्याही से।
अरि से कहा नहीं चल सकती मनमानी अब तेरी है।
सिंह सपूतों गरज पड़ो फिर बज उट्ठी रणभेरी है।।

करो प्रतिज्ञा मातृभूमि का कर्ज़ा आज चुकाना है।
रणचण्डी को जी भर कर दुश्मन का लहू पिलाना है।
निर्भय होकर टकराना है प्रलय वायु के झोंकों से।
लिखना है इतिहास नया फिर तलवारों की नोकों से।
गले लगाता जो कि मौत को विजय उसी की चेरी है।
सिंह सपूतों गरज पड़ो फिर बज उट्ठी रणभेरी है।।