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छप्पय / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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पडे़ भूमि पर सोना, तो सुख से सो जाते,
मिले कहीं पर्यंक, उसी पर सेज बिछाते,
कभी शाक-भाजी खाकर हैं क्षुधा मिटाते,
मिलें विविध व्यंजन तो उनका भोग लगाते,
फटे-पुराने पट कभी, शाल-दुशाले ओढ़ते।
किन्तु नहीं कर्त्तव्य से बधुजन मुख हैं मोड़ते।।

दाँतों से दुर्गन्ध सदा है जिसके आती,
वस्त्र मलिनता, घृणा सभी के उर उपजाती,
सूर्याेदय तक नींद न जिसकी खुलने पाती,
कटु वाणी जिसकी श्रोता को व्यथित बनाती,
तज देती बस रूष्ट हो, लक्ष्मी उसका साथ है।
वह चाहे भगवान ही, स्वयं त्रिलोकीनाथ है।।

ऊँचे-ऊँचे विटप फलागम से झूक जाते,
जल से पूरित नीरद भी नीचे को आते,
तूल सरिस ऊपर उड़ कर नभ में न समाते,
हो समृद्धि सम्पन्न नहीं सज्जन इठलाते,
उस में अधिक विनम्रता, होती व्याप्त महान है।
पर उपकारी की यही, संसृति में पहचान है।।

सारी वसुधा उनके हित घर का आँगन है,
क्षुद्र नदी सा होता उनको सिन्धु गहन है,
पृथ्वी सम पाताल, कुंज सम बीहड़ बन है,
है सुमेरू वल्मीक, शूल भी सुखद सुमन है,
जग में जो प्रणवरी हैं, कठिन प्रतिज्ञा ठानते।
हर हालत में वे उसे, पूरा करके मानते।।

नमन सदा करते श्रद्धा से जो गुरूजन को,
निरत सदा रखते सेवा में हैं तन-मन को,
लालायित रहते समीप रह ज्ञानार्जन को,
सफल किया करते जगती में निज जीवन को,
कभी गँवाते हैं नहीं, जो प्रमाद में एक छिन।
यश, विद्या, बल, आयु हैं बढ़ते, उनके रात-दिन।।