पुरूष कहीं पर चले जा रहे थे दो नदी किनारे।
थे दोनों ही सन्यासी का बाना तन पर धारे।।
एक युवक था, प्रौढ़ दूसरा, वय में था यह अन्तर।
सरिता के उस पार पहुँचना था दोनों को चलकर।।
रूपवती युवती भी कोई तट पर वहीं खड़ी थी।
थी एकाकी, उसको भी वह करनी पार नदी थी।।
बोली वह दोनों से, मुझकों कंधे पर बिठला कर।
मेरा भी उपकार करो, उस पार मुझे पहुँचाकर।।
किए प्रौढ़ सन्यासी ने अनसुने वचन युवती के।
जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ा कर पहुँचा पार नदी के।।
दूर निकल कर खड़ा हुआ वह छाया में तरूवर की।
लगा जोहने वाट वहीं पर अपने प्रिय सहचर की।।
किन्तु युवा सन्यासी ने युवती को तुरत उठाया।
कन्धे पर अपने, नदिया के पार उसे पहुँचाया।।
गया पास जब प्रौढ़ मित्र के, प्रौढ़ उसे लख बोला।
था मन में जो भाव, युवक के सन्मुख ऐसे खोला।।
हुआ तुम्हें क्या आज तुम्हारी मति कैसे बौराई।
कन्धें पर लेते युवती को लाज न तुमको आई।।
कहा युवक ने, हम तो उसको छोड़ वहीं पर आए।
किन्तु अभी तक तुम युवती को फिरते साथ उठाए।।