मेरा मन
जैसे खेत में खड़ा एक बिजुका
महसूसता है हर पल
तुम्हारी आवन-जावन को
बिना कोई सवाल किये...
और भावनाएं जैसे
पीहर में बैठी विवाहिता
गिन रही हो गौने के दिन,
बार बार देखती हुई
टूटा बक्सा और मुट्ठी भर नोट...
फिर भी उम्मीदें
जैसे खेत की मेड़ों पर
घूमते धूसरित कदम
दौड़ पड़ते हैं देखते ही
प्याज, रोटी और हरी मिर्च...
अंततः प्रेम
जैसे किसी मदमस्त शाम
नहर के किनारे
ठंडी हवा में एक ही फूल को
टुक निहारते हुए दो जोड़ा ऑंखें...