Last modified on 9 जुलाई 2014, at 12:39

दोहे / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:39, 9 जुलाई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह= }} {{KKCatDoha}} ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आजीवन थे जो पिता, कल कल बहता नीर
कैसे मानूँ आज वो, हैं केवल तस्वीर

रहे सुवासित घर सदा, आँगन बरसे नूर
माँ का पावन रूप है, जलता हुआ कपूर

हर लो सारे पुण्य पर, यह वर दो भगवान
बिटिया के मुख पे रहे, जीवन भर मुस्कान

नथ, बिंदी, बिछुवा नहीं, बनूँ न कंगन हाथ
बस चंदन बन अंत में, जलूँ उसी के साथ

दीप कुटी का सोचता, लौ सब एक समान
राजमहल के दीप को, क्यूँ इतना अभिमान

जाति पाँति के फेर में, वंश न करिये तंग
नया रंग पैदा करें, जुदा जुदा दो रंग