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पिता-पुत्र संवाद / यात्री

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हिमधवल तुंगशृंग...
बइसल छथि एहिपर पद्मासन लगओने!
नेत्र छन्हि अर्धनिमीलित
विरजित ठामहि गौरी गिरिकन्या।
ऋृद्धि-सिद्धी झोरमेँ
लंबोदर कोरामेँ।
कार्तिक कतहु गेल छथिन धूमऽ,
बसहा छन्हि ठाढ़, पाजु करैत...
चाहिअन्हि आर की हुनका?

“प्रिय बटुक, बूझल अछि अहाँ केँ -
की थिकइ कुंठा?
की थिकइ संत्रास?
की थिकइ मृत्युबोध?
होइत छइ कोना आक्रोशक विस्फोट?
अल्पजीवी लघुप्राण व्यक्ति भेटल अछि अहाँ केँ?”
गजानन तत्काल उतरि गेलथीन कोरासँ
चारि हाथ फराक भऽ कँऽ ठाढ़...
लाल नमहर ठोर हिबैत कहलथीन -
“बुझा तऽ हल दितहुँ...
मुदा, अहाँ बुझबे नहि करबइ।
हिमाद्रिक ई तृंग शृंग छाड़ि-
नीचाँ तराइ दिश ताकिओ टा हैत?"

देखि पिताकेँ मौन - गम्भीर - निरपेक्ष
माय दिश लगलाह ताकऽ तरूण गणेश
तखन, सहज स्नेहँ अभिभूत -
पार्वती बजलीह...
“अहुना केओ ठाँहि - पठाँहि
बापकेँ देलक अछि जबाब?
जाउ छोटन, की कहब अहाँकेँ...
अपन जेठ भाय् सँ
किछुओ त सिखने रहितहुँ।”