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परिणति / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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काल चक्र पर ससरल जाइत अछि संसारक जिनगी,
काल्हि रहय धधकल ज्वाला आ आइ मिझायल चिनगी।
घन घमण्ड उमड़ल छल, चमकय रहि-रहि विद्युल्लेखा,
पावस गेल, गगन मण्डल मे रहल न नीरद-रेखा।
शरदक होइत विकास कासकेर मधुर हास छिड़िआयल
सिङरहार झड़ि बिलहि सुरभि, पुनि कालक गाल समायल।
हेमन्तक छायामे सगरो बाध भरल छल-अन्न,
ततहि आब देखयमे आबय कनइत खेत हकन्न।
अबितहि निष्ठुर शिशिर ककर नहि कम्पित कयलक गात
महावृक्ष सबहुक शाखासँ पातक भेल निपात।
हलसल-फुलसल नवोल्लासलय आयल फेर बसन्त,
नव किसलयसँ भरल-पुरल पुनि ठूठ गाछ पर्यन्त।
अहह! सुनह घबराह न, त्यागह जनु जीवनसँ आशा,
काल करैत रहल अछि एहिना नव-नव नित्य तमाशा।
स्वर्णथारमे पाबि रहल छी जे जन मेवा-मिसरी,
आओता काल झपटि लय जायत एतबा टा नहि बिसरी।
कालक गाल विशाल तते जे समा जाय आकाश
परम सत्य जे सृष्टिक परिणतिए थिक महाविनाश।